अछूत प्रथा उच्च या मध्य-उच्च श्रेणी में अभी भी है | चमार और हरिजन की कोटि उनके वयवसाय से बनी थी | वे उस ज़माने में लोगों की टट्टियाँ उठाने काम किया काम करते थे, जिसमें कुछ भी अजीब या ऊँचा - नींचा जैसा कुछ भी नही था, पर लोगों ने उसे एक दर्जा दे दिया, नीच| चलिए दे दिया तो दे दिया, पर अब जब अछूत प्रथा ख़तम होने की बातें होती हैं तो बड़ी नकली सी लगती हैं | लोगों ने अछूत जाती के लोगों को अपनाने की कोशिश तो भरसक की पर सफल न हो सकें | अगर कोई चमार या हरिजन अभी भी अपने वाव्यसाय से जुडा है, तो अभी भी हम उसका जूठा पीने को या उस्ससे हाथ मिलाने में संकोच करेंगे | पर कोई नीची जाती का व्यक्ति हमारे साथ पढ़ रहा हो, या साथ दफ्तर में काम कर रहा हो तो सारे संकोच समाप्त हो जाते हैं | ये मतभेद क्यूँ? हमने सिर्फ़ बहार से, दिखावे के लिए ये एलान कर रखा है की अछूत प्रथा समाप्त हो गई है, ये दिखावा उन सब रोज़ मर्रा के दिखावों के अंश के एक हिस्से के अलावा और कुछ भी नहीं है| अछूत प्रथा का अंत तब तक नहीं हो सकता जब तक हम इंसान को इंसान की तरह देखना नही शुरू कर देते हैं| अगर हमको कीचड से प्यार करना नही आया है, तो ये कहना ग़लत होगा की हम कमल सकते प्यार करना जानते हैं| हमने प्यार करना सीखा ही नहीं है| जब तक हम दफ्तर के काम करने वाले व्यक्ति से लेकर पैखाना साफ़ करने वाले व्यक्ति से सामान वायवहार नहीं रख सकते, तब तक हमे ये भी कहने का कोई हक़ नहीं है की हम अछूत प्रथा नहीं मानते|
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